मूढ़ नही था कोई खास,
मौसम भी था बड़ा उदास,
बादल में भी था क्रोध भरा,
काला काला था गरज रहा,
मै क्या करू ये सोच रही थी,
छत्री खोलने में संकोच कर रही थी,
बारीश ने प्रशन सुलझा दी,
छत्री आखिर खुलवा ही दी,
लेकिन फिर एक बात हुई,
मुझे बहुत अचरज हुई,
बालो में बुँदे महसूस हुई,
छत्री से मै नाराज़ हुई,
देखा छत्री को घूर के मैंने,
पहचाना तभी अपनी भूल को मैंने,
था एक द्वार छत्री में बनाया,
चूहे ने फिर से था कमाल दिखाया.